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प्रेरक कहानियां - पार्ट 100

परमेश्वर का प्रेम भरा उपहार


एक दिन " जीसस " के एक अनुयायी ने उन्हें अपने घर पर भोज के लिए आमंत्रित किया। " जीसस " अपने भाई-बंधुओं व शिष्य-मंडली सहित भोज पर पंहुचे और भोजन ग्रहन किया, व कुछ समय पश्चात " ईसा " ने वहाँ उपस्थित लोगों को सत्य मार्गित उपदेश दिए तत्पश्चात वहाँ से चलने को उद्धत हुए। तभी एक स्त्री वहाँ आ गई, जिसे उस नगर में चरित्रहीन स्त्री के रूप में जाना जाता था। उस स्त्री ने आते ही " ईसा " के चरण पकड़ लिए और कहा - " हे परमेश्वर के पुत्र ! " मैंने आपके यहाँ आगमन के बारे में सुना तो आपके दर्शनों का लोभ मुझे आपकी तरफ़ खीँच लाया। फिर बड़ी विनम्रता के साथ बोली - हे दयालु परमेश्वर के पुत्र - मुझ पतिता को भी अपने चरणों की धूल स्पर्श करने का अवसर प्रदान करें। "

" श्री ईसा " ने बड़े वात्सल्यपूर्ण नेत्रों से उस स्त्री को देखा। उस स्त्री के पास कुछ भी ऐसा नहीं था जो वो " प्रभु " को भेट कर सके, ऐसा उसने सोचा ! उसी क्षण उसके अंदर चल रही इस विचार को " ईसा " ने पढ़ लिया व बोले - तुम्हारा यहाँ आ जाना ही मेरे लिए एक प्रिय भेट के समान है क्योंकि तुम भी तो उसी का ही अंश हो !

उसी वक़्त उस स्त्री ने अपने पास से इत्र की एक शीशी निकालकर " ईसा " के ऊपर सुगन्धित इत्र छिड़का और अपने नेत्रों से झर-झर अश्रुओं ( आंसू ) से " ईसा " के चरण धोए।

जिनके वहाँ " ईसा " भोज हेतु पधारे थे वह मेजबान उस स्त्री को अच्छी तरह जानता था। वह शंकित हो उठा। उसे आश्चर्य था कि " ईसा " ने सर्वग्य व अंतर्यामी होकर भी एक चरित्रहीन स्त्री के स्पर्श से स्वयं को भी अपवित्र कैसे कर लिया। वह सोचने लगा - क्या उनका स्वयं को नबी कहना कोरा झूठ है ? " श्री ईसा " ने उसी क्षण मेजबान के विचारों को पढ़ लिया।

व बड़े प्रेम के साथ बोले - " भाई " तुम्हे आश्चर्य हो रहा है कि मैंने इस स्त्री को स्वयं का स्पर्श क्यों करने दिया ? मैं तुमसे एक प्रश्न करता हूं। एक साहूकार से दो व्यक्तियों ने ऋण लिया। एक व्यक्ति ने थोडा ऋण लिया, दूसरे ने अधिक। परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि दोनों ही क़र्ज़ चुकाने में असमर्थ हो गए। तब साहूकार ने दयाभाव दिखाते हुए दोनों का ऋण माफ़ कर दिया। अब आप मुझे ये बताइए कि उन दोनों में से कौन कर्ज़दार साहूकार का ज्यादा आभारी होगा ?

" निश्चय ही ज्यादा क़र्ज़ लेने वाला। " मेजबान ने बड़े सहज के साथ उत्तर दिया। 

" ईसा " ने मुस्कुरा के कहा - " यही सत्य है। " " तुमलोग स्वयं की दृष्टि में सच्चे हो तो तुम्हे ईश्वर का ज्यादा ऋण नहीं चुकाना। यह स्त्री स्वयं को पतिता समझती है तो इस पर परमेश्वर का ऋण अधिक हुआ। इसलिए परमेश्वर की कृपा की अधिकारी यह तुमसे अधिक है। यह तो प्रायश्चित करने को भी उद्वेलित है। इसका प्रभु में समर्पण तुमसे कहीं ज्यादा होने को है। हम सब आपके निमंत्रण पर भोज में आये। स्वादिष्ट भोजन पाया, किन्तु आतिथ्य का मूल और आवश्यक कार्य तुमसे न हो सका। आपने तो अपने अतिथियों के चरण जल से भी धोने में लज्जा का अनुभव किया ये एक प्रकार की अज्ञानता ही है, परंतु इस स्त्री ने जिसे आप पतिता कह रहे हैं अपने निर्मल अश्रुओं से मेरे पैर धोए वो भी कैसे पैर - जिनका परमात्मा की कृपा बिना चलना तक मुश्किल है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इसका अंतःकरण उस परम पवित्र तेज की तरफ अग्रसर है। यह सात्विक प्रेम को जान चुकी है और परमेश्वर तो सच्चे प्रेम के आधीन होते ही हैं ! सच्चे प्रेम के लिए तो परमेश्वर बड़े -से -बड़ा अपराध भी क्षमा कर देता है। - परमेश्वर का सबसे बड़ा उपहार प्रेम ही है।

" श्री ईसा " के इन वचनों से सबको एक दिव्य संदेश मिला और वह स्त्री स्वयं को धन्य समझती हुई वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को लौटी।

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